Sharing a poem composed by my batchmate Malay
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देश वासियों, आखिर क्यों तुम सब सहने के आदी हो?
जश्न मनाना तुम उस दिन, जब सचमुच में आज़ादी हो।
जिस दिन मेरे हमदम, हर गरीब के घर में रोटी हो।
जिस दिन कोई बूढ़ी माता भूखे पेट न सोती हो।
जिस दिन दीन दुखी मरीज़ को भी इलाज वो मिल जाए।
जो बिन मांगे पैसे और पहुंच के हिस्से में आये।
जिस दिन खाकी के हाथों ज़मीर की ना बर्बादी हो।
जश्न मनाना तुम उस दिन, जब सचमुच में आज़ादी हो।
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हर नन्हा मुन्ना बालक जब जितना चाहे पढ़ पाए।
जब नन्ही कलियाँ भी विद्यालय की सीढ़ी चढ़ पाएं।
जब आरक्षण की बैसाखी फेंक खड़ा हो नव भारत।
जब मेधा की नींव पर बने राष्ट्र की सुदृढ़ ईमारत।
जब शिक्षा के न्यायालय में ना इक भी फरियादी हो।
जश्न मनाना तुम उस दिन, जब सचमुच में आज़ादी हो।
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जनसंख्या का अजगर आज खड़ा देखो, मुंह खोले है।
और तुम्हारे मन में अब तक, बिस्मिल्लाह, बम-भोले है।
आज उतारो अपनी आंखों से मज़हब का यह चश्मा।
करो नियंत्रण जन्म दरों का, पूर्ण करो अपना सपना।
जिस दिन सौ करोड़ लोगों से कम अपनी आबादी हो।
जश्न मनाना तुम उस दिन, जब सचमुच में आज़ादी हो।
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चुनते जिन्हें देश वासी, अपना प्रारब्ध बनाने को।
फुरसत उन्हें कहाँ, उनको तो और चाहिए खाने को।
वोट, इलेक्शन, चार वर्ष में एक बारगी आता है।
हाथ जोड़ कुछ रोज़, अलोप फिर बहुरूपिया हो जाता है।
राष्ट्र हित और देश प्रेम से सराबोर जब खादी हो।
जश्न मनाना तुम उस दिन, जब सचमुच में आज़ादी हो।
मलय
15 अगस्त 2021
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